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प्रतिज्ञा

पूर्णा बोली---स्मृतियाँ पुरुषों ही की बनाई हुई तो होगी ही?

'और क्या? धूर्तों का पाखण्ड है।'

'अच्छा, तब तुम बाबू अमृतराय को क्यों बदनाम करते हो?'

'केवल इसलिए कि उनका चरित्र अच्छा नहीं। वह विवाह के बन्धन में न पड़कर छूटे साँड़ बने रहना चाहते हैं। उनका विधवाश्रम केवल उनका भोगालय होगा। इसीलिए हम उनका विरोध कर रहे हैं। यदि वह विधवा से विवाह करना चाहते हैं, तो देश में विधवाओं का कल्याण है? पर वह विवाह न करेंगे। बाज़े आदमियों को टट्टी की आड़ से शिकार खेलने में ही मज़ा आता है; मगर ईश्वर ने चाहा तो उनका आश्रम बनकर तैयार न हो सकेगा। सारे शहर में उन्हें कौड़ी-भर की भी मदद न मिलेगी। ( घड़ी की ओर देखकर ) अरे! दो बज रहे हैं। अब विलम्ब नहीं करना चाहिये। आओ, इस दीपक के सामने ईश्वर को साक्षी करके हम शपथ खाएँ कि जीवन-पर्यन्त हम पति-पत्नी-व्रत का पालन करेंगे।'

पूर्णा का मुख विवर्ण हो गया। वह उठ खड़ी हुई और बोली---अभी नहीं बाबूजी! साल भर नहीं। तब तक सोच लो। मैं भी सोच लूँ। जल्दी क्या है?

यह कहती हुई वह किवाड़ खोलकर तेज़ी से बाहर निकल गई; और कमलाप्रसाद खड़े ताकते रह गये, चिड़िया दाना चुगते-चुगते समीप आ गई थी; पर ज्यों ही शिकारी ने हाथ चलाया, वह फुर उड़ गई; मगर क्या वह सदैव शिकारी के प्रलोभनों से बचती रहेगी?