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प्रतिज्ञा

अवस्था ही क्या थी? पच्चीस वर्ष की अवस्था में क्या वह विधुर जीवन का पालन करते? कदापि नहीं। अब उसे याद ही न आता था कि पण्डित वसन्तकुमार ने उसके साथ कभी इतना अनुरक्त प्रेम किया था। उन्हें इतना अवकाश ही कहाँ था? सारे दिन तो दफ्तर में बैठे रहते थे। फिर उन्होंने उसे सुख क्या पहुँचाया? एक-एक पैसे की तो तंगी रहती थी, सुख क्या पहुँचाते? उनके साथ भी रो-रोकर ही ज़िन्दगी कटती थी। क्या रो-रोकर प्राण देने के लिए ही उसका जन्म हुआ है? स्वर्ग और नरक सब ढकोसला है। अब इससे दुःखदायी नरक क्या होगा? जब नरक ही में रहना है, तो नरक ही सही। कम-से-कम जीवन के कुछ दिन तो आनन्द से कटेंगे; जीवन का कुछ सुख तो मिलेगा। जिससे प्रेम वही अपना सब कुछ है। विवाह और संस्कार सब दिखावा है। चार अक्षर संस्कृत पढ़ देने से क्या होता है? मतलब तो यही है न कि किसी प्रकार स्त्री का पालन-पोषण हो। उँह, इस चिन्ता में क्यों कोई मरे? विवाह क्या स्त्री को पुरुष से बाँध देता है? वह भी तन मिले ही का सौदा है। स्त्री और पुरुष का मन न मिला तो विवाह क्या मिला देगा? विवाह होने पर भी तो पुरुष की जब इन्छा होती है, स्त्री को छोड़ देता है। बिना विवाह के भी तो स्त्री-पुरुष आजीवन प्रेम से रहते हैं। इन्हीं कुत्सित भावनाओं में पूर्णा ने भोर कर दिया।

प्रातःकाल वह बालों में कंघी कर रही थी कि सुमित्रा आकर खड़ी हो गई। पूर्णा ने मृदुभाव से कहा---बैठो बहन, आज तो बड़े सबेरे नींद खुल गई।

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