पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

सुमित्रा ने तीव्र स्वर में कहा---नींद आई ही किसे थी?

पूर्णा---न-जाने किस तबीयत के आदमी हैं।

सुमित्रा---क्या तुमने भी अभी तक उनकी थाह नहीं पाई? तुम तो इन बातों में चतुर हो।

पूर्णा ने आशंकित नेत्रों से उनकी ओर देखकर कहा---मैं यह विद्या नहीं पढ़ी हूँ।

सुमित्रा---पहले मैं भी ऐसा ही समझती थी; पर अब मालूम हुआ कि मुझे धोखा हुआ था।

पूर्णा ने क्रोध का भाव धारण करके कहा---तुम तो बहन आज लड़ने आई हो।

सुमित्रा---हाँ, आज लड़ने ही आई हूँ। हम दोनों अब इस घर में नहीं रह सकतीं।

पूर्णा ने इसका कुछ जवाब न दिया। ऐसा जान पड़ा, मानों पृथ्वी ने अपने सारे बोझ से दबा दिया है।

सुमित्रा ने फिर कहा---तुमने जब पहले-पहल इस घर में क़दम रक्खे थे, तभी मैं खटकी थी। मुझे उसी वक्त यह संशय हुआ था कि तुम्हारा यौवन और रूप और उस पर यह सरस स्वभाव मेरे लिए घातक होगा; इसीलिये मैंने तुम्हें अपने साथ रखना शुरू किया था। लेकिन होनहार को कौन टाल सकता था? मैं जानती हूँ---तुम्हारा हृदय निष्कपट है। अगर तुम्हें कोई न छेड़ता तो तुम जीवन-पर्यन्त अपने व्रत पर स्थिर रहती। लेकिन पानी में रहकर हलकोरों से बचे रहना तुम्हारी शक्ति के बाहर था। बे-लङ्गर की नाव लहरों में स्थिर नहीं रह सकती।

१७३