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प्रतिज्ञा

कमला---नहीं, शायद कोई ज़रूरी काम है। उसने अभी बुलाया है।

पूर्णा ने फिर सुमित्रा की ओर देखा; पर सुमित्रा अभी तक दीवार की ओर ताक रही थी। न 'हाँ' कहते बनता था न 'नहीं'। प्रेमा से वह इधर महीनों से न मिल सकी थी। उससे मिलने के लिए चित्त लालायित हो रहा था। न-जाने क्यों बुलाया है? इतनी जल्दी बुलाया है, तो अवश्य ही कोई ज़रूरी काम होगा। रास्ते-भर की तो बात है, इनके साथ जाने में हरज ही क्या है? वहाँ दो-चार दिन रहने से जी बहल जायगा। इन महाशय से तो पिण्ड छूट जायगा। यह सोचकर उसने कहा---आप क्यों कष्ट कीजियेगा। मैं अकेली चली जाऊँगी।

कमला ने झुँझलाकर उत्तर दिया---अच्छी बात है, जब इच्छा हो चली जाना, मैं तो इसी वक्त जा रहा हूँ। दान बाबू से कुछ बातें करनी हैं। मैंने तुम्हारे आराम के ख्याल से कहा था कि इसी गाड़ी पर तुम्हें भी लेता चलता।

पूर्णा अब कोई आपत्ति न कर सकी। बोली---तो कब जाइयेगा?

कमला ने द्वार के बाहर कदम रखते हुए कहा---मैं तैयार हूँ।

पूर्णा भी चटपट तैयार हो गई। कमला चला गया तो उसने सुमित्रा से कहा---इनके साथ जाने में क्या हरज है?

सुमित्रा ने आश्वासन देते हुए कहा---साथ जाने में क्या हरज है, मगर देखो मुझे भूल न जाना, जल्दी ही आना।

यह वाक्य सुमित्रा ने केवल शिष्टाचार के भाव से कहा। दिल में वह पूर्णा के जाने से प्रसन्न थी। पूर्णा का मन कमलाप्रसाद की ओर

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