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प्रतिज्ञा

से फेर देने के बाद अब उसके लिए इससे बढ़कर और कौन-सी बात हो सकती थी कि उन दोनों में कुछ दिनों के लिए विच्छेद हो जाय। पूर्णा अब यहाँ आने के लिए उत्सुक न होगी, और प्रेमा खुद उससे जाने को क्यों कहने लगी? उसके यहाँ रहना स्वीकार कर ले तो उसे मुँह-माँगी मुराद मिल जाय। सुमित्रा को पूर्ण के चले जाने ही में अपना उद्धार दिखाई दिया।

लेकिन जब पूर्णा ताँगे पर बैठी और देखा कि घोड़े की रास किसी कोचवान के हाथ में नहीं, कमलाप्रसाद के हाथ में है, तो उसका हृदय अज्ञात शंका से दहल उठा। एक बार जी में आया कि ताँगे से उतर पड़े; पर इसके लिए कोई बहाना न सूझा। वह इसी दुबिधा में पड़ी हुई थी कि कमला ने घोड़े को चाबुक लगाई, ताँगा चल पड़ा।

कुछ दूर तक तो ताँगा परिचित मार्ग से चला। वही मन्दिर थे, वही दूकानें थीं। पूर्णा की शङ्का दूर होने लगी; लेकिन एक मोड़ पर ताँगे को घूमते देखकर पूर्णा को ऐसा आभास हुआ कि सीधा रास्ता छूटा जा रहा है। उसने कमला से पूछा---इधर से कहाँ चल रहे हो?

कमला ने निश्चित भाव से कहा---उधर फेर था। इस रास्ते से जल्द पहुँचेंगे। पूर्ण चुप हो गई। कई मिनट तक गली में चलने के बाद ताँगा चौड़ी सड़क पर पहुँचा। एक के बाद उसने रेलवे लाइन पार की। अब आबादी बहुत कम हो गई थी। केवल दूर-दूर पर अड़्गरेज़ों के बँगले बने हुए थे।

पूर्णा ने घबड़ाकर पूछा---यह तुम मुझे कहा लिये चलते हो?

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