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प्रतिज्ञा

'जरा अपने बगीचे तक चल रहा हूँ। कुछ देर वहाँ बाग़ की सैर करके तब प्रेमा के घर चलेंगे।'

'तुमने मुझसे बगीचे का तो ज़िक्र भी नहीं किया था, नहीं तो मैं कभी न आती।'

'अरे दस मिनट के लिए यहीं रुक जाओगी, तो ऐसा कौन अनर्थ हो जायगा?'

'ताँगा लौटा दो, नहीं मैं कूद पडूँगी।'

'कूद पड़ोगी तो हाथ-पैर टूट जायँगे, मेरा क्या बिगड़ेगा?'

पूर्णा ने सशङ्क नेत्रों से कमला को देखा। वह उसे इस निर्जन स्थान में क्यों ले आया है? क्या उसने मन में कुछ और ठानी है? नहीं, वह इतना नीच, इतना अधम नहीं हो सकता और बँगले पर दस-पाँच मिनट रुक जाने ही में क्या बिगड़ जायगा। आख़िर वहाँ भी तो आदमी, नौकर-चाकर होंगे।

ज़रा देर में बगीचा आ पहुँचा। कमला ने ताँगे से उतरकर फाटक खोला। उसे देखते ही दो माली दौड़े हुए आये। एक ने घोड़े की रास पकड़ी, दूसरे ने कमला का हैण्डबेग उठा लिया। कमला ने पूर्णा को आहिस्ते से ताँगे पर से उतारा, और उसे भीतर के सजे हुए बँगले में ले जाकर बोला--यह जगह तो ऐसी बुरी नहीं है कि यहाँ घण्टे-दो-घण्टे ठहरा न जा सके।

पूर्णा ने कौशल से आत्मरक्षा करने की ठानी थी। बोली---प्रेमा मेरी राह देख रही होगी। इसी से मैं जल्दी कर रही थी।

कमला---अजी, बातें न बनाओ, मैं सब समझता हूँ। तुम मुझे

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