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प्रतिज्ञा

प्रतिशा पूर्णा ने ग्लानि-मय स्वर में कहा---उदास तो नहीं हूँ।

पूर्णा क्यों उदास थी, वह इसे कमला से न कह सकी। उसे इस समय वसन्तकुमार की याद न थी, अधर्म की शका न थी; बल्कि, कमला के प्रगाढ़ आलिङ्गन में मग्न इस समय उसे यह शंका हो रही थी कि इस प्रणय का अन्त भी क्या वैसा ही भयङ्कर होगा! निर्मम विधि-लीला फिर उसका सुख-स्वप्न तो न भङ्ग कर देगी? वह दृश्य उसके आँखों में फिर गया। जब पहले-पहल उसके स्वामी ने उसे गले लगाया था, उस समय उसका हृदय कितना निःशंक, कितना उमंगों से भरा हुआ था; पर इस समय उमङ्गों की जगह शंकाएँ थीं। बाधाएँ थीं।

वह इसी अर्द्धचेतना की दशा में थी कि कमला ने धीरे से उसे एक कोच पर लेटा दिया; और द्वार बन्द करने जा ही रहा था कि पूर्णा ने उसके मुख की ओर देखा, और चौंक पड़ी; कमला की दोनों आँखों से चिनगारियाँ सी निकल रही थीं। यह आन्तरिक उल्लास की दिव्य-मधुर ज्योति न थी, यह किसी हिंसक पशु की रक्त-क्षुधा का प्रतिबिम्ब था। इनमें प्रेमी की प्रदीप्त आकांक्षा नहीं, व्याध का हिंसा-सङ्कल्प था। इनमें श्रावण के श्याम मेघों की सुखद छवि नहीं ग्रीष्म के मेघों का भीषण प्रवाह था। इनमें शरद-ऋतु के निर्मल जल-प्रवाह का कोमल सङ्गीत नहीं, पावस की प्रलयङ्करी बाढ़ का भयङ्कर नाद था। पूर्णा सहम उठी। वह झपटकर कोच से उठी, कमला का हाथ झटके से खींचा और द्वार खोलकर बरामदे में निकल आई।

कमला ने दृष्टि से देखकर कहा----क्यों-क्यों पूर्णा? कहाँ जाती हो?

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