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प्रतिज्ञा

पड़े हुए थे। अब तक पूर्णा ने इस जघन्य दृश्य की ओर ध्यान न दिया था। अब उन्हें देखकर उसे घृणा होने लगी। वहाँ एक क्षण रहना भी असह्य जान पड़ने लगा। पर जाय कहाँ? नाक दबाये, उकडूँ बैठी आने-जानेवालों की गति-प्रगति पर कान लगाये हुए थी।

दोपहर होते-होते बगीचे का फाटक बन्द हो गया। बग्घी, मोटर, ताँगा किसी की आवाज़ भी न सुनाई देती थी। इस नीरवता में पूर्णा भविष्य की चिन्ता में गोते खा रही थी।

अब उसके लिए कहाँ आश्रय था? एक ओर जेल की दुस्सह यन्त्रणाएँ थीं, दूसरी ओर रोटियों के लाले, आँसुओं की धार और घोर प्राण पीड़ा! ऐसे प्राणी के लिए मृत्यु के सिवा और कहाँ ठिकाना है?

जब सन्ध्या हो गई और अँधेरा छा गया, तो पूर्णा वहाँ से बाहर निकली और सड़क पर खड़ी होकर सोचने लगी---कहाँ जाऊँ? जीवन में अब अपमान, लज्जा, दुःख और सन्ताप के सिवाय और क्या है? अपने पति के बाद ही उसने क्यों न प्राणों को त्याग दिया; क्यों न उसी शव के साथ सती हो गई? इस जीवन से तो सती हो जाना कहीं अच्छा था? क्यों उस समय उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी? वह क्या जानती थी कि भले आदमी भी ऐसे दुष्ट होते हैं, अपने मित्र भी गले पर छुरी फेरने को तैयार हो जाते हैं। अब मृत्यु के सिवाय उसे और कहीं ठिकाना नहीं।

एक बूढ़े आदमी को देखकर वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ी हो गई। जब बूढ़ा निकट आ गया और पूर्णा को विश्वास हो गया कि

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