पूर्णा थर-थर काँप रही थी। एक शब्द भी मुँह से न निकाल सकी। बूढ़े को विश्वास हो गया, यह स्त्री घर से रूठकर आई है। दया आ गई। बोला---बेटी, घर से रूठकर भागना अच्छी बात नहीं। ज़माना ख़राब है। कहीं बदमाशों के पञ्जे में फँस जाओ तो फिर सारी ज़िन्दगी भर के लिए दाग़ लग जाय। घर लौट जाओ बेटी, बड़े-बूढ़े दो बात कहें, तो गम खाना चाहिये। वे तुम्हारे ही भले के लिए कहते हैं। चलो, मैं तुम्हें घर पहुँचा दूँ।
पूर्णा के लिए अब जवाब देना लाज़िम हो गया; बोली---बाबा, मुझे घरवालों ने निकाल दिया है।
'क्यों निकाल दिया? किसी से लड़ाई हुई थी?'
'नहीं बाबा, मैं विधवा हूँ। घरवाले मुझे रखना नहीं चाहते।'
'सास-ससुर है?'
'नहीं बाबा, कोई नहीं है। एक नातेदार के यहाँ पड़ी थी, आज उसने भी निकाल दिया।'
बूढ़ा एक मिनट तक कुछ सोचकर बोला----तो तुम गङ्गा की ओर क्या करने जा रही थीं? वहाँ कोई तुम्हारा अपना है?
'नहीं, महाराज! सोचती थी, रात-भर वहीं घाट पर पड़ी रहूँगी। सवेरे किसी जगह खाना पकाने की नौकरी कर लूँगी।
बूढ़ा समझ गया। अनाथिनी रात के सयय गङ्गा का रास्ता और किस लिए पूछ सकती है? जब वहाँ भी इसका कोई नहीं है तो फिर गङ्गा-तट पर जाने का और अर्थ ही क्या हो सकता है?
बोला---वनिता-भवन में क्यों नहीं चली जाती?
१९०