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प्रतिज्ञा

'वनिता-भवन क्या है बाबा? मैंने तो सुना भी नहीं।'

'वहाँ अनाथ स्त्रियों का पालन किया जाता है। कैसी ही स्त्री हो, वह लोग बड़े हर्ष से उसे अपने यहाँ रख लेते हैं। अमृतराय बाबू को दुनिया चाहे कितना ही बदनाम करे; पर काम उन्होंने बड़े धर्म का किया है। इस समय पचास स्त्रियों से कम न होंगी। सब हँसी-खुशी रहती हैं; कोई मर्द अन्दर नहीं जाने पाता। अमृत बाबू आप भी अन्दर नहीं जाते। हिम्मत का धनी जवान है, सच्चा त्यागी इसी को देखा।'

पूर्णा का दिल बैठ गया। जिस विपत्ति से बचने के लिए उसने प्राणान्त कर देने की ठानी थी; वह फिर सामने आती हुई दिखाई दी। अमृतराय उसे देखते ही पहचान जायँगे। उनके सामने वह खड़ी ही कैसे हो सकेगी! कदाचित् उसके पैर काँपने लगेंगे; और वह गिर पड़ेगी। वह उसे हत्यारिनी समझेंगे! जिससे वह एक दिन साली के नाते विनोद करती थी, वह आज उनके सम्मुख कुलटा बनकर जायगी!

बूढ़े ने पूछा---देर क्यों करती हो बेटी, चलो मैं तुम्हें वहाँ पहुँचा दूँ। विश्वास मानो, वहाँ तुम बड़े आराम से रहोगी।

पूर्णा ने कहा---मैं वहाँ न जाऊँगी बाबा!

'वहाँ जाने में क्या बुराई है?'

'यो ही मेरा जी नहीं चाहता।'

बूढ़े ने झुँझलाकर कहा---तो यह क्यों नहीं कहती कि तुम्हारे सिर पर दूसरी ही धुन सवार है।

यह कहकर बूढ़ा आगे बढ़ा। जिसने स्वयं कुमार्ग-पथ पर चलने का निश्चय कर लिया हो, उसे कौन रोक सकता है?

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