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प्रतिज्ञा

दिये जाते थे, लेख लिखे जाते थे; और जिस दिन प्रेमा ने टाउनहाल में जाकर उनके कुचक्रों को मटियामेट कर दिया, उस दिन से तो वह अमृतराय के खून के प्यासे हो रहे थे। प्रेमा से पहले ही दिल साफ़ न था, अब तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। प्रेमा से कुछ न कहा, इस विषय की चर्चा तक न की। प्रेमा जवाब देने को तैयार बैठी थी; लेकिन उससे बोलना-चालना छोड़ दिया। भाई पर तो जान देते थे और बहन की सूरत से भी बेज़ार। बल्कि यों कहिये कि ज़िन्दगी ही से बेज़ार थे। उन्होंने जिस आनन्द-मय जीवन की कल्पना की थी, वह दुस्सह रोग की भाँति

उन्हें घुलाये डालता था। उनकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो एक घोड़े के रंग, रूप और चाल देखकर उस पर लट्टू हो जाय; पर हाथ आ जाने पर उस पर सवार न हो सके। उसकी कनौतियाँ, उसके तेवर, उसका हिनहिनाना, उसका पाँव से ज़मीन खुरचना---ये सारी बातें उसने पहले न देखी थीं। अब उसके पुट्ठे पर हाथ रखते भी शंका होती है। जिस मूर्ति की कल्पना करके दाननाथ एक दिन मन में फूल उठते थे, उसे अब सामने देखकर उनका चित्त लेशमात्र भी प्रसन्न न होता था। प्रेमा जी-जान से उनकी सेवा करती थी, उनका मुँह जोहा करती थी, उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा किया करती थी; पर दाननाथ को उसकी भाव-भंगियों में बनावट की गन्ध आती थी। वह अपनी भूल पर मन ही मन पछताते थे और उनके भीतर की यह ज्वाला द्वेष का रूप धारण करके अमृतराय पर मिथ्या दोष लगाने और उनका विरोध करने में शान्ति लाभ करती थी; लेकिन शीघ्र ही मनस्ताप

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