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प्रतिज्ञा

की बराबरी न कर सकते थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि प्रेमा भी अमृतराय ही की ओर झुकी हुई मालूम होती थी। दाननाथ इतने निराश हुए कि आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय कर लिया। दोनो मित्रों में किसी प्रकार का द्वेष-भाव न आया। दाननाथ यों देखने में तो नित्य प्रसन्न-चित्त रहते थे; लेकिन वास्तव में वह संसार से विरक्त-से हो गये थे। उनका जीवन ही आनन्द-विहीन हो गया था। अमृतराय को अपने प्रिय मित्र की आन्तरिक व्यथा देख-देखकर दुःख होता था; वह अपने चित्त को इस परीक्षा के लिए महीनों से तैयार कर रहे थे; किन्तु प्रेमा जैसी अनुपम सुन्दरी को त्याग करना आसान न था‌। ऐसी दशा में अमृतराय को ये बातें सुनकर दाननाथ का हृदय आशा से पुलकित हो उठा। जिस आशा को उन्होंने हृदय को चीर कर निकाल डाला था, जिसकी इस जीवन में वह कल्पना भी न कर सकते थे, जिसकी अन्तिम ज्योति बहुत दिन हुए शान्त हो चुकी थी वही आशा आज उनके मर्म-स्थल को चंचल करने लगी। इसके साथ ही अमृतराय के देवीपम त्याग ने उन्हें वशीभूत कर लिया। यह गद्ग्द् कण्ठ से बोले--क्या इसीलिए तुमने आज प्रतिज्ञा कर डाली? अगर वह मित्र तुम्हारी इस उदारता से लाभ उठाये, तो मैं कहूँगा वह मित्र नहीं, शत्रु है। और फिर यही क्या निश्चय है कि इस दशा में प्रेमा का विवाह तुम्हारे उसी मित्र से हो?

अमृतराय ने चिन्तित होकर कहा--हाँ, यह शङ्का अवश्य हो सकती है; लेकिन मुझे आशा है कि मेरे मित्र इस अवसर को हाथ से न जाने देंगे। मैं उन्हें ऐसा मन्दोत्साह नहीं समझता। दाननाथ ने