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प्रतिज्ञा

क्षेत्र में अभी यह उसकी पहली ही क्रीड़ा थी; और इस पहली ही क्रीड़ा में उसके पाँव में ऐसा काटा चुभा कि कदाचित् वह फिर इधर क़दम रखने का साहस भी न कर सके; मगर दाननाथ के सामने वह फटकार न सुनना चाहता था। लाला बदरीप्रसाद ने उसे केवल फटकार ही नहीं सुनाई, उसे झूठा और दगाबाज़ बनाया। अपनी आत्मरक्षा के लिए उसने जो कथा गढ़ी थी उसका भंडा फोड़ दिया। क्या संसार में कोई पिता ऐसा निर्दयी हो सकता है? उस दिन से कमलाप्रसाद ने फिर पिता से बात न की।

दाननाथ यहाँ से चले, तो उनके जी में ऐसा आ रहा था कि इसी वक्त घर-बार छोड़कर कहीं निकल जाऊँ। कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले डूबा था। जनता की दृष्टि में कमलाप्रसाद और वह अभिन्न थे। यह असम्भव था कि उनमें से एक कोई काम करे और उसका यश या अयश दूसरे को न मिले। जनता के सामने अब किस मुँह से खड़े होंगे, क्या यह उनके सार्वजनिक जीवन का अन्त था? क्या वह अपने को इस कलङ्क से पृथक कर सकते थे?

मगर कमला इतना गया-बीता आदमी है! इतना कुटिल, इतना भ्रष्टाचरण! इतना नीच!! फिर और किस पर विश्वास किया जाय? ऐसा धर्मानुरागी मनुष्य जब इतना पतित हो सकता है, तो फिर दूसरों से क्या आशा? जो प्राणी शील और परोपकार का पुतला था, वह ऐसा कामान्ध क्यों कर हो गया? क्या संसार में कोई भी सच्चा, नेक, निष्कपट व्यक्ति नहीं है?

घर पहुँचकर ज्योंही वह घर में गये, प्रेमा ने पूछा---तुमने भी

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