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प्रतिज्ञा

देख आए; पर इस भय से कि तब तो यह और भी बिगड़ जायँगे, उसने यह इच्छा प्रकट न की। मन-ही-मन ऐंठकर रह गई।

एक क्षण के बाद दाननाथ ने कहा---जी चाहता हो, तो जाकर देख आओ। चोट तो ऐसी गहरी नहीं है; पर मक्कर ऐसा किये हुए है, मानो गोली लग गई हो।

प्रेमा ने विरक्त होकर कहा--तुम तो देख ही आये, मैं जाकर क्या करूँगी!

'नहीं भाई, मैं किसी को रोकता नहीं। ऐसा न हो, पीछे से कहने लगो, तुमने जाने न दिया। मैं बिलकुल नहीं रोकता।'

'मैंने तो कभी तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की। क्यों व्यर्थ का दोष लगाते हो? मेरी जाने की बिलकुल इच्छा नहीं है।'

'हाँ, इच्छा न होगी, मैंने कह दिया न! मना करता, तो ज़रूर इच्छा होती। मेरे कहने से छूत लग गई।'

प्रेमा समझ गई कि यह उसी चन्देवाले जलसे की तरफ़ इशारा है। अब और कोई बाचचीत करने का अवसर न था। दाननाथ ने वह अपराध अब तक न क्षमा किया था। वहीं उठकर अपने कमरे में चली गई।

दाननाथ के दिल का बुख़ार न निकलने पाया। वह महीनों से अवसर खोज रहे थे कि एक बार प्रेमा से खूब खुली-खुली बातें करें; पर यह अवसर उन्हें न मिलता था। आज भी यह अवसर उनके हाथ से निकल गया। वह खिसियाये हुए बाहर जाना चाहते थे कि सहसा

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