पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

दिया, वैसा और पहले दाननाथ ने कभी न देखा था। यह कुछ वैसा ही गर्वपूर्ण आनन्द था, जैसा माता को दो रूठे हुए भाइयों के मनोमालिन्य के दूर हो जाने से होता है। बोली---अमृतराय की भी तो भूल थी कि उन्होंने तुमसे मिलना-जुलना छोड़ दिया। कभी-कभी आपस में भेंट होती रहती, तो ऐसा भ्रम क्यों उत्पन्न होता? खेत में हल न चलने ही से तो घास-पास जम आता है।

'नहीं, उनकी भूल नहीं; सरासर मेरा दोष था। मैं शीघ्र ही इसका प्रायश्चित्त करूँगा। मैं एक जलसे में सारा भण्डा-फोड़ कर दूँगा। इन पाखण्डियों की क़लई खोल दूँगा।'

'क़लई तो काफ़ी तौर पर खुल गई, अब उसे और खोलने की क्या ज़रूरत है?'

'ज़रूर है-कम-से-कम अपनी इज्ज़त बचाने के लिए इसकी बड़ी

सख्त ज़रूरत है। मैं जनता को दिखा दूँगा कि इन पाखण्डियों से मेरा मेल-मिलाप किस ढंग का था। इस अवसर पर मौन रह जाना मेरे लिए घातक होगा। उफ़! मुझे कितना बड़ा धोखा हुआ। अब मुझे मालूम हो गया कि मुझमें मनुष्यों को परखने की शक्ति नहीं है; लेकिन अब लोगों को मालूम हो जायगा कि मैं जितना जानी दोस्त हो सकता हूँ, उतना ही जानी दुश्मन भी हो सकता हूँ। जिस वक्त कमलाप्रसाद ने उस अबला पर कुदृष्टि डाली, अगर मैं मौजूद होता, तो अवश्य गोली मार देता। जरा इस षड्यंत्र को तो देखो कि बेचारी को उस बगीचे में लिवा ले गया, जहाँ दिन को भी आधी रात का-सा सन्नाटा रहता है। बहुत ही अच्छा हुआ। इससे भी बढ़कर होता, यदि उसने इस दुष्ट

२०६