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प्रतिज्ञा

होते ही हैं, यह कोई नई बात न थी। कुछ दिन और पहले यदि कमलाप्रसाद के विषय में ऐसी चर्चा उठती, तो कोई उस पर ध्यान भी न देता। ऐसे सैकड़ो काण्ड नित्य ही होते रहते हैं, कोई परवाह नहीं करता। नेताओं की मण्डली में आ जाने के बाद हमारी बाज़ाब्ता जाँच होने लगती है। नेताओं के रहन-सहन, आहार-व्यवहार---सभी आलोचना के विषय हो जाते हैं। उनके चरित्र की जाँच आदर्श नियमों से की जाने लगती है। कमलाप्रसाद अभी तक नेताओं की उस श्रेणी में न आया था, उसका जो कुछ सम्मान और प्रभाव था, वह दाननाथ-जैसे विद्वान्, प्रतिभाशाली, सच्चरित्र मनुष्यों से मेल-जोल के कारण था। वह पौधा न था, जो भूमि से जीवन और बल पाता है; वह बेल के समान वृक्ष पर चढ़नेवाला जीव था। उसमें जो कुछ प्रकाश था, वह केवल प्रतिबिम्ब था; अतएव उसके कृत्यों का दायित्व बहुत अंशों में उसके मित्रों ही पर रखा जा रहा था; और दाननाथ पर उसका निकटतम मित्र और सम्बन्धी होने के कारण, इस दायित्व का सबसे बड़ा भार था। 'अजी, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं' यह कथन मुँह पर आये या न आये; पर मन में सबके था।

दो-चार दिन में दृष्टिकोण में एक विचित्र परिवर्तन हुआ। कुछ इस तरह की आलोचना होने लगी–--कमला बाबू का दोष नहीं---सीधे-सादे आदमी हैं। डोरी दूसरों ही के हाथों में थी, जो टट्टी की आड़ से शिकार खेलते हैं। इस ग़रीब को उल्लू बनाकर खुद मजे उड़ाते थे। फँसते तो गावदी ही हैं, खिलाड़ी पहले ही फाँदकर पार निकल जाते हैं। सारी कालिमा दानू के मुँह पर पुत गई।

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