दाननाथ को सचमुच ही घर से निकलना मुश्किल हो गया। वही जनता, जो उनके सामने आदर से सिर झुका देती थी, उन्हें आते देखकर रास्ते से हट जाती थी; उन्हें मञ्च पर जाते देखकर जय-जयकार की ध्वनि से आकाश को प्रतिध्वनित कर देती थी, अब उनका मज़ाक उड़ाती थी--उन पर फ़बतियां कसती थी। कॉलेजों के लड़कों में भी आलोचना होने लगी। उन्हें देखकर आपस में आँखें मटकाई जाने लगी। क्लास में उनसे हास्यास्पद प्रश्न किये जाते। यहाँ तक कि एक दिन बरामदे में कई लड़कों के सामने चलते-चलते सहसा उन्होंने पीछे फिरकर देखा, तो एक युवक को हाथ की चोंच बनाये पाया। युवक ने तुरन्त ही हाथ नीचे कर लिया और कुछ लज्जित भी हो गया; पर दाननाथ को ऐसा आघात पहुँचा कि अपने कमरे तक आना कठिन हो गया। कमरे में आकर वह अद्ध-मूच्र्छा की दशा में कुर्सी पर गिर पड़े----अब वह एक क्षण भी यहाँ न ठहर सकते थे। उसी वक्त छुट्टी के लिए पत्र लिखा और घर चले आये। प्रेमा ने उनका उतरा चेहरा देखकर पूछा---कैसा जी है? आज सवेरे कैसे छुट्टी हो गई?
दाननाथ ने उदासीनता से कहा---छुट्टी नहीं हुई, सिर में कुछ दर्द था, चला आया। एक क्षण के बाद फिर बोले----मैंने आज तीन महीने की छुट्टी ले ली है। कुछ दिन आराम करूँगा।
प्रेमा ने हाथ-मुँह धोने के लिए पानी लाकर रखते हुए कहा--मैं तो कभी से चिल्ला रही हूँ कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पहाड़ों की सैर करो। दिन-दिन घुले जाते हो। जल-वायु बदल जाने से अवश्य लाभ होगा।
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