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प्रतिज्ञा

प्रतिष्ठा का जो भवन उन्होंने बरसों में खड़ा किया था, वह पराई आग से जलकर भस्मीभूत हो गया था। इस भवन को वह दो-चार शब्दों से फिर निर्माण कर सकते थे; केवल एक व्याख्यान किसी तान्त्रिक के मन्त्र की भाँति इस राख के ढेर को पुनर्जीवित कर सकता था; उनकी ज़बान बन्द थी। लोगों से मिलना-जुलना पहले ही छूट गया था, अब उन्होंने बाहर निकलना भी छोड़ दिया। दिन-भर पड़े-पड़े कुछ पढ़ा या सोचा करते। हृदय की चिन्ता उन्हें अन्दर ही अन्दर घुलाये डालती थी। प्रेमा के बहुत आग्रह करने पर बाहर निकलते भी तो उस वक्त, जब अँधेरा हो जाता। किसी परिचित मनुष्य की सूरत देखते ही उनके प्राण-से निकल जाते थे।

एक दिन सुमित्रा आई। बहुत प्रसन्न थी। प्रेमा ने पूछा---अब तो भैया से लड़ाई नहीं करतीं?

सुमित्रा हँसकर बोली--अब ठीक हो गये। बदनामी हुई तो क्या; पर ठीक रास्ते पर आ गये। अब सैर-सपाटा सब बन्द है। घर से निकलते ही नहीं। लालाजी से तो बोल-चाल बन्द है, अम्माँजी बहुत कम बोलती हैं। बस, अपने कमरे में पड़े रहते हैं। अब तो जो कुछ हूँ, मैं हूँ। मैं ही प्राणेश्वरी हूँ, मैं ही जीवन-सुधा हूँ, मैं ही हृदय की रानी हूँ। रोज़ नई-नई उपाधियाँ गढ़ी जाती है, नये-नये नाम दिये जाते हैं। मेरा तो अब जी ऊब जाता है। पहले यह इच्छा रहती थी कि यह मेरे पास बैठे रहें। अब यह इच्छा होती है कि कुछ देर के लिए यह आँखों से दूर हो जायँ। जब प्रेम जताने लगते हैं, तो झुँझला उठती हूँ। मगर फिर भी पहले से कहीं अच्छी

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