सुमित्रा---हाँ, देख तो रही हूँ। आधे भी नहीं रहे।
दाननाथ ने प्रेमा को पत्र दिखाकर कहा---यह देखो अमृतराय का एक लेख है।
प्रेमा ने झपटकर पत्र ले लिया, फिर कुछ संयमित होकर बोली---किस विषय पर है? वह तो लेख-वेख नहीं लिखते।
दान॰---पढ़ लो न!
प्रेमा--पढ़ लूँगी; पर है क्या? वही वनिता-भवन के सम्बन्ध में कुछ लिखा होगा।
दान॰---मुझे गालियाँ दी हैं।
प्रेमा को मानो बिच्छू ने डंक मारा। अविश्वास के भाव से बोली---तुम्हें गालियाँ भी दी हैं! तुम्हें!! मैं उन्हें इससे बहुत ऊँच समझती थी।
दान॰---मैंने गालियाँ दी है, तो वह क्यों चुप रहते?
प्रेमा---तुमने भी गालियाँ नहीं दी। मत-भेद गाली नहीं है।
दान॰---किसी को गाली देने में ही मज़ा आये तो?
प्रेमा---तो मैं एक की सौ-सौ सुनाऊँगी! मैं उन्हें इतना नीच नहीं समझती थी। अब मालूम हुआ कि वह भी हमी-जैसे राग-द्वेष से भरे हुए मनुष्य हैं।
दान॰---ऐसी चुन-चुनकर गालियाँ निकाली है कि मैं दंग रह गया।
प्रेमा॰---अब इस बात का ज़िक्र ही न करो, मुझे दुःख होता है।
दाननाथ ने मुस्कराकर कहा---ज़रा पढ़ तो लो, फिर बतलाओ कि इस पर क्या कार्रवाई की जाय? पटकनी दूँ या खोपड़ी सहलाऊँ।
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