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प्रतिज्ञा

'अगर आज न जाओ तो अच्छा। वे समझेंगे, खुशामद करने आये हैं।"

'नहीं प्रिये, अब जी नहीं मानता। उनके गले से लिपटकर रोने को जी चाहता है।'

यह कहते हुए दाननाथ बाहर चले गये। सुमित्रा भी बूढ़ी अम्मा के पास जा बैठी। प्रेमा की सुकीर्ति का बखान सुने बिना उसे कब चैन आ सकता था? प्रेमा ने उस लेख को फिर पढ़ा। तब जाकर चारपाई पर लेट रही। उस लेख का एक-एक शब्द उसके दृष्टि-पट पर खिंचा हुआ था। मन में ऐसी-ऐसी कल्पनाएँ उठ रही थीं, जिन्हें वह चाहती थी कि न उठें।

फिर उसके भावों ने एक विचित्र रूप धारण किया---अमृतराय ने यह लेख क्यों लिखा? उन्होंने अगर दाननाथ को सचमुच गाली दी होती, तो चाहे एक क्षण के लिए उसे उन पर क्रोध पाता; पर कदाचित चित्त इतना अशान्त न होता।

सहसा उसने पत्र को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर दिया और पुर्जे खिड़की के बाहर फेंक दिये। जो पंख पक्षी को जाल के नीचे बिखरे हुए दानों की ओर ले जायँ, उनका उखड़ जाना ही अच्छा!!



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