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प्रतिज्ञा

फाटक में दाखिल हुए। बूढ़ा इन्हें देखते ही झुककर सलाम करता हुआ बोला---आओ भैया, बहुत दिनन माँ सुधि लिहेव। बाबू रोज तुम्हार चर्चा कर-कर पछताते रहे। तुमका देखि के फूले न समैहैं। मजे में तो रह्यो। जाय के बाबू से कह देई।

यह कहता हुआ वह उलटे पाँव बँगले की ओर चला। दाननाथ भी झेंपते हुए उसके पीछे-पीछे चले। अभी वह बरामदे में भी न पहुँच पाये थे कि अमृतराय अन्दर से निकल आये और टूटकर गले मिले।

दाननाथ ने कहा---तुम मुझसे बहुत नाराज़ होगे?

अमृतराय ने दूसरी ओर ताकते हुए कहा---यह न पूछो दानू, कभी-कभी तुम्हारे ऊपर क्रोध आया है, कभी दया आई है; कभी दुःख हुआ है, कभी आश्चर्य हुआ है; कभी-कभी अपने ऊपर भी क्रोध आया है। मनुष्य का हृदय कितना जटिल है, इसका सबक़ मिला गया। तुम्हें इस समय यहाँ देखकर भी मुझे उतना आनन्द नहीं रहा है, जितना होना चाहिये। सम्भव है, यह भी तुम्हारा क्षणिक उद्गार ही हो। हाँ तुम्हारे चरित्र पर मुझे कभी शङ्का नहीं हुई। रोज़ तरह-तरह की बातें सुनता था; पर एक क्षण के लिए भी मेरा मन विचलित नहीं हुआ। यह तुमने क्या हिमाक़त की कि कॉलेज से छुट्टी ले ली। छुट्टी कैन्सिल करा लो और कल से कॉलेज जाना शुरू करो।

दाननाथ ने इस बात का कुछ जवाब न देकर कहा---तुम मुझे इतना बता दो कि तुमने मुझे क्षमा कर दिया या नहीं? मैंने तुम्हारे साथ बड़ी नीचता की है।

अमृतराय ने मुस्कराकर कहा---सम्पत्ति पाकर नीच हो जाना

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