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प्रतिज्ञा

अमृत॰---अच्छा चुप रहो भाई, जो कुछ किया अच्छा किया, इतना मैं तब भी जानता था कि अगर कोई मुझ पर वार करता तो तुम पहले सीना खोलकर खड़े हो जाते। चलो, तुम्हें आश्रम की सैर कराऊँ।

दान॰---चलूँगा; मगर मैं चाहता हूँ, पहले तुम मेरे दोनो कान पकड़कर खूब ज़ोर से खींचो और फिर दो-चार लप्पड़ ज़ोर-ज़ोर से लगाओ।

अमृत॰---इस वक्त तो नहीं; पर पहले कई बार जब तुमने शरारत की तो ऐसा क्रोध आया कि गोली मार दूँ; मगर फिर यही ख्याल आ जाता था कि इतनी बुराइयों पर भी औरों से अच्छे हो। आओ चलो, तुम्हें आश्रम की सैर कराऊँ। आलोचना की दृष्टि से देखना। जो बात तुम्हें खटके, जहाँ सुधार की ज़रूरत हो, फौरन बताना।

दान॰---पूर्णा भी तो यहीं आ गई है। उसने उस विषय में कुछ और बातें की?

अमृत॰---अजी उसकी न पूछो, विचित्र स्त्री है। इतने दिन आये हुए, मगर अभी तक रोना नहीं बन्द हुआ। अपने कमरे से निकलती ही नहीं।

खुद कई बार गया, कहा---जो काम तुम्हें सबसे अच्छा लगे, वह अपने ज़िम्मे लो, मगर हाँ या ना कुछ उसके मुँह से निकलती ही नहीं। औरतों से भी नहीं बोलती। खाना दूसरे-तीसरे वक्त बहुत कहने-सुनने से खा लिया। बस, मुँह ढाँपे पड़ी रहती है। मैं चाहता हूँ कि और स्त्रियाँ उसका सम्मान करें, उसे कोई अधिकार दे दूँ, किसी तरह उस पर प्रकट हो जाय कि एक शोहदे की शरारत ने उसका बाल भी बाँका नहीं किया, उसकी इज्जत जितनी पहले थी, उतनी ही अब भी है; पर वह कुछ होने नहीं देती। तुम्हारा उससे परिचय है न?

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