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प्रतिज्ञा

के जीवन का पूर्ण विकास कहते थे और आज आप विवाह के वकील बने हुए हैं। तकदीर अच्छी पा गये न!

दाननाथ ने त्योरी चढ़ाकर कहा---मैंने कभी अविवाहित जीवन को आदर्श नहीं समझा। वह आदर्श हो ही कैसे सकता है? अस्वाभाविक वस्तु कभी आदर्श नहीं हो सकती।

अमृत॰---अच्छा भाई, मैं ही भूल कर रहा हूँ। चलते हो कहीं? हाँ, आज तुम्हें शाम तक यहाँ रहना पड़ेगा। भोजन तैयार हो रहा है। भोजन करके ज़रा लेटेंगे, खूब गप-शप करेंगे, फिर शाम को दरिया में बजरे का आनन्द उठायेंगे। वहाँ से लौटकर फिर भोजन करेंगे, और तब तुम्हें छुट्टी मिल जायगी। ईश्वर ने चाहा तो आज ही प्रेमा देवी मुझे कोसने लगेगी।

दोनो मित्र आश्रम की सैर करने चले। अमृतराय ने नदी के किनारे असी-संगम के निकट ५० एकड़ ज़मीन ले ली थी। वहीं रहते भी थे। अपना कैण्टोमेण्टवाला बँगला बेच डाला था। आश्रम ही के हाते में एक छोटा-सा मकान अपने लिए बनवा लिया था। आश्रम के द्वार के दोनो बाजुओं पर दो बड़े-बड़े कमरे थे। एक आश्रम का दफ्तर था और दूसरा आश्रम में भरी हुई चीज़ों का शो-रूम! दफ्तर में एक अधेड़ महिला बैठी हुई लिख रही थी। रजिस्टर आदि क़ायदे से आलमारियों में चुने रखे थे। इस समय ८० स्त्रियाँ थीं और २० बालक। उनकी हाज़िरी लिखी हुई थी। शो-रूम में सूत, ऊन, रेशम, सलमा-सितारे, मूँज आदि की सुन्दर बेल-बूटेदार चीजें शीशे की दराजों में रखी हुई थीं। सिले हुए कपड़े भी अलगनियों पर लटक रहे थे। मिट्टी

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