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प्रतिज्ञा

भैया, हमारा डोंगा क्यों मँझधार में डुबाये देते हो। तुम घर के लड़के हो, तुमसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहते क्या है!

बदरी॰--मैं उसके पास अब नहीं जा सकता।

देवकी--आख़िर क्यों? कोई हरज है?

बदरी--अब तुमसे क्या बताऊँ। जब मुझे उनके विचार मालूम हो गये, तो मेरा उनके पास जाना अनुचित ही नहीं, अपमान की बात है। आख़िर हिन्दू और मुसलमान में विचारों ही का तो अन्तर है। मनुष्य में विचार ही सब कुछ है। वह विधवा-विवाह के समर्थक हैं, समझते हैं इससे देश का उद्धार होगा। मैं समझता हूँ, इससे हमारा समाज नष्ट हो जायगा, हम इससे कहीं अधोगति को पहुँच जायँगे, हिन्दुत्व का रहा-सहा चिन्ह भी मिट जायगा। इस प्रतिज्ञा ने उन्हें हमारे समाज से बाहर कर दिया। अब हमारा उनसे कोई सम्पर्क नहीं रहा।

देवकी ने इस मापत्ति का महत्त्व नहीं समझा। बोली--यह तो कोई बात नहीं। आज अगर कमला मुसलमान हो जाय, तो क्या हम उसके पास आना-जाना छोड़ देंगे? हमसे जहाँ तक हो सकेगा, उसे समझायेंगे और उसे सुपथ पर लाने का उपाय करेंगे।

देवकी के इस तर्क से बदरीप्रसाद कुछ नरम सो पड़े; लेकिन फिर भी अपना पक्ष न छोड़ सके। बोले--भई, मैं तो अब अमृतराय के पास न जाऊँगा। तुम अगर सोचती हो कि समझाने से वह राह पर आ जायेंगे, तो बुलवा लो, या चली जाओ। लेकिन मुझसे जाने को न कहो। मैं

उन्हें देखकर शायद आपे से बाहर हो जाऊँ। कहो तो जाऊँ?

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