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प्रतिज्ञा

प्रतिज्ञा पूर्णा ने सिर झुकाये हुए ही पूछा---प्रेमा बहन तो अच्छी तरह हैं? उनसे कह दीजियेगा, क्या मुझे भूल गईं या मुँह देखे भर की प्रीति थी? सुधि भी न ली कि मरी या जीती है।

दान॰---वह तो कई बार तुमसे मिलने के लिए कहती थी; पर संकोच के मारे न आ सकी। तुमने गुलदस्ता तो बहुत सुन्दर बनाया है।

तीनो लड़कियाँ डोल छोड़-छोड़कर आ खड़ी हुई थीं। यहाँ जो प्रशंसा मिल रही थी, उससे वे क्यों वंचित रहतीं। एक बोल उठी---देवीजी ने उस पीपल के पेड़ के नीचे एक मन्दिर बनाया है, चलिये आपको दिखायें।

पूर्णा---यह झूठ बोलती है। यहाँ मन्दिर कहाँ है?

बालिका---बनाया तो है। चलिये दिखा दूँ। वहीं रोज़ गुलदस्ते बना-बनाकर ठाकुरजी को चढ़ाती हैं। रोज़ गंगाजल लाती हैं, और ठाकुरजी को चढ़ाती हैं।

अमृतराय ने बालिका का हाथ पकड़कर कहा---कहाँ मन्दिर बनाया है, चलो देखें। तीनो तालिकाएँ आगे-आगे चलीं। उनके पीछे दोनो मित्र थे और सबके पीछे पूर्णा धीरे-धीरे चल रही थी।

दाननाथ ने अड़्गरेज़ी में कहा---भक्ति मनुष्यों का अन्तिम आश्रय है।

अमृतराय बोले---अब मुझे यहाँ एक मन्दिर बनाने की ज़रूरत मालूम हो रही है।

बाग के उस सिरे पर एक पुराना वृक्ष था। उसी के नीचे थोड़ी-सी

ज़मीन लीप-पोतकर पूर्णा ने एक घरोंदा-सा बनाया था। वह फूल-पत्तों से ख़ूब सजा था। उसी घरोंदे में केले के पट्ठों से हुए एक सिंहासन

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