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प्रतिज्ञा

पर कृष्ण की एक मूर्ति रखी हुई थी। मूर्ति वही थी, जो बाज़ार में एक-एक पैसे को मिलती है; पर औरों के लिए वह चाहे मिट्टी की मूर्ति हो, पूर्णा के लिए वह अनन्त जीवन का स्रोत, अखण्ड प्रेम का आगार; अपार भक्ति का भण्डार थी। सिंहासन के सामने चीनी के पात्र में एक सुन्दर गुलदस्ता रखा हुआ था। उस अनाथिनी के हृदय से निकली हुई श्रद्धा की एक ज्योति-सी वहाँ छिटकी हुई थी, जिसने दोनो संशयवादियों का मस्तक भी एक क्षण के लिए नत कर दिया।

अमृतराय ज़रा देर किसी विचार में मग्न खड़े रहे। सहसा उनके नेत्र सजल हो गये, पुलकित कण्ठ से बोले----पूर्णा, तुम्हारी बदौलत आज हम लोगों को भी भक्ति की एक झलक मिल गई। अब हम नित्य कृष्ण भगवान के दर्शनों को आया करेंगे! उनकी पूजा का कौन-सा समय है?

पूर्णा, की मुखाकृति इस समय अवर्णनीय आभा से प्रदीत थी; और उसकी आँखें गहरी, शान्त विह्वलता से परिप्लावित हो रही थीं। बोली---मेरी पूजा का कोई समय नहीं है बाबूजी! जब हृदय में शूल उठता है, यहाँ चली आती हूँ और गोविन्द के चरणों में बैठकर रो लेती हूँ। कह नहीं सकती बाबूजी, यहाँ रोने से मुझे कितनी शान्ति मिलती है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि गोविन्द स्वयं मेरे आँसू पोछते हैं। मुझे अपने चारो ओर अलौकिक सुगन्ध और प्रकाश का अनुभव होने लगता है। उनकी सहास, विकसित मूर्ति देखते ही मेरे चित्त में आशा और आनन्द की हिलोरें-सी उठने लगती है। प्रेमा बहन कभी आयेंगी बाबूजी?

उनसे कह दीजियेगा, उन्हें देखने के लिए मैं बहुत ज्याकुल हो रही हूँ।

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