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प्रतिज्ञा

थे कि मैं जब किसी के साथ रहा करूँ, तो सिर पर मत सवार हो जाया करो। रसोइए का कोई दोष न था। बेचारे बहुत झेंपे। भोजन आया। दोनो मित्रों ने खाना शुरू किया। भोजन निरामिष था; पर बहुत ही स्वादिष्ठ।

दाननाथ ने चुटकी ली---यह भोजन तुम-जैसे ब्रह्मचारियों के लिए नहीं है। तुम्हारे लिए एक कटोरा दूध और दो चपातियाँ काफ़ी हैं।

अमृत॰ क्यों भाई?

दान॰--तुम्हें स्वाद से क्या प्रयोजन?

अमृत॰--जी नहीं, मैं उन ब्रह्मचारियों में नहीं हूँ। पुष्टिकारक और स्वादिष्ठ भोजन को मैं मन और बुद्धि के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक समझता हूँ। दुर्बल शरीर में स्वस्थ मन नहीं रह सकता। तारीफ़ जानदार घोड़े पर सवार होने में है। उसे इच्छानुसार दौड़ा सकते हो। मरियल घोड़े पर सवार होकर अगर तुम गिरने से बच ही गये तो क्या बड़ा काम किया?

भोजन करने के बाद दोनो मित्रों में आश्रम के सम्बन्ध में बड़ी देर तक बातें होती रहीं। आखिर शाम हुई और दोनो गंगा की सैर करने चले।

सान्ध्य समीर मन्दगति से चल रहा था, और बजरा हलकी-हलकी लहरों पर थिरकता हुआ चला जाता था। अमृतराय डाँड़ लिये बजरे को खे रहे थे और दाननाथ तख्ते पर पाँल फैलाये लेटे हुए थे। गंगादेवी भी सुनहले आभूषण पहने मधुर स्वरों में गा रही थीं। आश्रम का विशाल भवन सूर्यदेव के आशीर्वाद में नहाया हुआ खड़ा था।

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