दान॰—कहाँ हुआ?
अमृत॰—यहीं बनारस में।
दान॰—और स्त्री क्या आकाश में है, या तुम्हारे हृदय में!
अमृत॰—जी नहीं, हमारे तुम्हारे और संसार के सामने।
दान॰—मैंने तो नहीं देखा?
अमृत॰—अभी देखे चले आते हो और अब भी देख रहे हो।
दाननाथ ने सोचकर कहा—कौन है, पूर्णा तो नहीं?
अमृत॰—पूर्णा को मैं अपनी बहन समझता हूँ।
दान॰—तो फिर कौन है? तुमने मुझे क्यों न दिखाया?
अमृत॰—घण्टों तक दिखाता रहा, अब और कैसे दिखाता। अब भी दिखा रहा हूँ। वह देखो। ऐसी सुन्दरी तुमने और कहीं देखी है? मैं ऐसी-ऐसी और कई जानें उस पर भेंट कर सकता हूँ।
दाननाथ ने आशय समझकर कहा—अच्छा, अब समझा।
अमृत॰—इसके साथ मेरा जीवन बड़े आनन्द से कट जायगा। यह एक-पत्नीव्रत का समय है। बहु-विवाह के दिन गये।
दाननाथ ने गम्भीर भाव से कहा—मैं जानता कि तुम यों प्रतिज्ञा पूरी करोगे, तो मैं प्रेमा से हर्गिज़ विवाह न करता। फिर देखता कि तुम बचकर कैसे निकल जाते।
अमृतराय के हाथ रुक गये। उन्हें डाँड़ चलाने की सुधि न रही। बोले, यह तुम्हें उसी वक्त समझ लेना चाहिये था, जब मैंने प्रेमा की उपासना छोड़ी। प्रेमा समझ गई थी। चाहे पूछ लेना।
पृथ्वी ने श्यामवेष धारण कर लिया था, और बजरा लहरों पर
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