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प्रतिज्ञा

जीता रह सकता है और व्याख्यान देने वालों के बगैर भी दुनिया के रसातल चले जाने की सम्भावना नहीं। जहाँ देखो वक्ता-ही-वक्ता नज़र आते हैं, बरसाती मेढकों की तरह टर-टर किये और चलते हुए। अपना समय गँवाया और दूसरों को हैरान किया। सब-के-सब मूर्ख हैं।

देवकी--अमृतराय ने तो आज डोगा ही डुबा दिया। अब किसी विधवा से विवाह करने की प्रतिज्ञा की है।

कमलाप्रसाद ने ज़ोर से कहकहा मारकर कहा--और ये सभाओवाले क्या करेंगे। यही सब तो इन सभों को सूझती है। लाला अब किसी विधवा से शादी करेंगे; अच्छी बात है, मैं ज़रूर बारात में जाऊँगा, चाहे और कोई जाय या न जाय। ज़रा देखूँ, नये ढंग का विवाह कैसा होता है! वहाँ भी सब व्याख्यानबाज़ी करेंगे! इन लोगों के लिए और क्या होगा। सब-के-सब मूर्ख हैं, अक्ल किसी को छू नहीं गई।

देवकी--तुम ज़रा उनके पास चले जाते।

कमला--इस वक्त तो बादशाह भी बुलाये तो न जाऊँ, हाँ, किसी दिन जाकर ज़रा कुशल-क्षेम पूछ आऊँगा। मगर है बिलकुल सनकी। मैं तो समझता था इसमें कुछ समझ होगी। मगर निरा पोंगा निकला। अब बताओ, बहुत पढ़ने से क्या फ़ायदा हुआ? बहुत अच्छा हुआ कि मैंने पढ़ना छोड़-छाड़ दिया। बहुत पढ़ने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। जब आँखें कमजोर हो जाती हैं, तो बुद्धि कैसे बची रह सकती है? तो कोई विधवा भी ठीक हो गई कि नहीं? कहाँ है मिसराइन, कह दो अब तुम्हारी चाँदी है, कल ही सन्देशा भेज दें। कोई और न जाय

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