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प्रतिज्ञा

सहसा बाबू कमलाप्रसाद आ पहुँचे। यह जमघट देखकर बोले--जे क्या हो रहा? भई हमारा हिस्सा भी है न?

वसन्तकुमार ने आगे बढ़कर स्वागत किया, बोले--ज़रूर, ज़रूर, मीठी लीजियेगा कि नमकीन?

कमला--अजी मीठी पिलाओ, नमकीन क्या! मगर यार, केसर और केवड़ा ज़रूर हो, किसी को भेजिये मेरे यहाँ से ले आए। किसी लौंडे को भेजिये जो मेरे अन्दर जाकर प्रेमा से माँग लाए। कहीं धर्मपत्नीजी के पास न चला जाय, नहीं तो मुफ्त गालियाँ मिलें। त्यौहार के दिन उनका मिज़ाज गरम हो जाया करता है। यार वसन्तकुमार, धर्मपत्नियों को प्रसन्न रखने का कोई आसान नुस्खा बताओ? मैं तो तङ्ग आ गया।

वसन्तकुमार ने मुसकराकर कहा--हमारे यहाँ तो यह बीमारी कभी नहीं होती।

कमला--तो यार, तुम बड़े भाग्यवान् हो। क्या पूर्णा तुम से कभी नहीं रूठती?

वसन्त॰--कभी नहीं।

कमला--कभी किसी चीज़ के लिए हठ नहीं करती?

वसन्त॰--कभी नहीं।

कमला--तो यार, तुम बड़े भाग्यवान हो। यहाँ तो उम्र कैद हो गई है। अगर घड़ी भर भी घर से बाहर रहूँ, तो जवाब तलब होने लगे। सिनेमा रोज़ जाता हूँ और रोज़ घण्टों मनावन करनी पड़ती है।

वसन्त॰--तो सिनेमा देखने न जाया कीजिए।

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