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प्रतिज्ञा

कमला--वाह! वाह! वाह! यह तो तुमने ख़ूब कही। क़सम अल्लाह पाक की खूब कही! जिस कल वह बिठाये, उस कल बैठ जाऊँ? फिर झगड़ा ही न हो, क्यों? अच्छी बात है। कल दिन-भर घर से निकलूँगा ही नहीं, देखू तब क्या कहती हैं। देखा, अब तक लौंडा केसर और केवड़ा लेकर नहीं लौटा। कान में भनक पड़ गई होगी। प्रेमा को मना कर दिया होगा। भाई, अब तो नहीं रहा जाता, आज जो कोई मेरे मुँह लगा तो बुरा होगा। मैं अभी जाकर सब चीजें भेज देता हूँ। मगर जब तक मैं न आऊँ आप न बनवाइयेगा। यहाँ इस फन के उस्ताद हैं। मौरूसी बात है। दादा तोले-भर का नास्ता करते हैं। उम्र में कभी एक दिन का भी नाग़ा नहीं किया। मगर क्या मजाल कि नशा हो जाय!

यह कहते हुए कमलाप्रसाद झल्लाये हुए घर चले गये। वसन्त-कुमार किसी काम से अन्दर गये, तो देखा पूर्णा उबटन पीस रही है। पण्डितजी के विवाह के बाद यह दूसरी होली थी। पहली होली में बेचारे ख़ाली हाथ थे, पूर्णा की कुछ ख़ातिर न कर सके थे; पर अबकी उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थीं। परिश्रम करके कोई १५०) रु॰ ऊपर से कमाये थे। उससे पूर्णा के लिए अच्छी साड़ी लाये थे। दो एक छोटी-मोटी चीज़ें भी बनवा दी थीं। पूर्णा आज वह साड़ी पहनकर उन्हें अप्सरा-सी दीख पड़ने लगी। समीप जाकर बोले।--आज तो जी चाहता है, तुम्हें आँखों में बिठा लूँ।

पूर्णा ने उबटन एक प्याली में उठाते हुए कहा--यह देखो, मैं तो पहले ही से बैठी हुई हूँ।

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