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प्रतिज्ञा

वसन्त॰--जरा स्नान करता आऊँ। कमला बाबू अब दस बजे के पहले न लौटेंगे।

पूर्णा--पहले ज़रा यहाँ आकर बैठ जाव, उबटन तो मल दूँ, फिर नहाने जाना।

वसन्त॰--नहीं, नहीं, रहने दो, मैं उबटन न मलबाऊँगा। लाओ, मेरी धोती दो।

पूर्णा--वाह उबटन क्यों न मलवाओगे? आज की तो यह रीति है, आके बैठ जाव।

वसन्त--बड़ी गरमी है, बिलकुल जी नहीं चाहता।

पूर्णा ने लपककर उनका हाथ पकड़ लिया और उबटन भरा हाथ उनकी देह में पोत दिया। तब बोली-सीधे से कहती थी, तो नहीं मानते थे। अब तो बैठोगे।

वसन्त ने झेंपते हुए कहा--मगर ज़रा जल्दी करना, धूप हो रही है।

पूर्णा--अब गंगाजी कहाँ जाओगे। यहीं नहा लेना।

वसन्त॰--नहीं आज गंगा-किनारे बड़ी बहार होगी।

पूर्णा--अच्छा, तो जल्दी लौट आना। यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।

पण्डितजी उबटन मलवाकर स्नान करने चले। उनका क़ायदा था कि घाट से ज़रा अलग नहाया करते थे। तैराक भी अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराकों से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेंगे; पर हवा ऐसी धीमी-धीमी चल

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