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प्रतिज्ञा

रही थी, कि जी तैरने ने लिये ललचा उठा। तुरन्त पानी में कूद पड़े और इधर-उधर कल्लोलें करने लगे। सहसा उन्हें बीच धार में कोई लाल चीज़ दिखाई दी। ग़ौर से देखा तो कमल थे। सूर्य की किरणों में चमकते हुए वे इसे सुन्दर मालूम होते थे कि वसन्तकुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा, अगर ये मिल जायँ, तो पूर्णा के लिये झूमक बनाऊँ। उसके हर्ष का अनुमान करके उनका हृदय नाच उठा। हृष्ट-पुष्ट आदमी थे। बीच धार तक तैर जाना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी-दीवानी होती है। यह न सोचा कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ूँगा फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ़ चले और कोई पन्द्रह मिनट में बीच धार में पहुँच गये।

मगर वहाँ जाकर देखा तो फूल इतनी ही दूर और आगे थे। अब कुछ थकन मालूम होने लगी थी; किन्तु बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गये। कभी हाथों में ज़ोर मारते, कभी पैरों में ज़ोर लगाते फूलों तक पहुँचे। पर, उस वक्त तक सारे अंग शिथिल हो गये थे। यहाँ तक कि फूलों को लेने के लिये जब हाथ लपकाना चाहा, तो हाथ उठ न सका। आख़िर उनको दाँतों में दबाया और लौटे। मगर, जब वहाँ से उन्होंने किनारे की तरफ़ देखा, तो ऐसा मालूम हुआ, मानो एक हजार कोस को मञ्जिल है। शरीर बिलकुल अशक्त हो गया था और जल-प्रवाह भी प्रतिकूल था। उनकी हिम्मत छूट गई। हाथ-पाँव ढीले पड़ गये। आस-पास कोई नाव या डोंगी न थी और न किनारे तक आवाज़ ही पहुँच सकती थी।

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