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प्रतिज्ञा

बदरीप्रसाद ने बिछावन की चादर बराबर करते हुए कहा--सोच रहा हूँ, पूर्णा को अपने ही घर में रखूँ तो क्या हरज है? अकेली औरत कैसे रहेगी?

प्रेमा--होगा तो बहुत अच्छा, पर अम्माजी मानें तब तो?

बदरी॰--मानेगी क्यों नहीं। पूर्णा तो इन्कार न करेगी?

प्रेमा--पूछूँगी। मैं समझती हूँ, उन्हें इन्कार न होगा।

बदरी॰--अच्छा मान लो, वह अपने ही घर में रहे, तो उसका खर्च एक बीस रुपए में चल जायगा?

प्रेमा ने आर्द्र नेत्रों से पिता की ओर देखकर कहा--बड़े मज़े से। पण्डितजी ५०) रु॰ ही तो पाते थे।

बदरीप्रसाद ने चिन्तित भाव से कहा--मेरे लिए २०, २५, ३० सब बराबर हैं, लेकिन मुझे अपनी ज़िन्दगी ही की तो नहीं सोचनी है। अगर, आज मैं न रहूँ, तो कमला कौड़ी फोड़कर न देगा; इसलिए कोई स्थायी बन्दोबस्त कर जाना चाहता हूँ। अभी हाथ में रुपए नहीं हैं, नहीं तो कल ही चार हजार रुपए उसके नाम किसी अच्छे बैंक में रख देता। सूद से उसकी परवरिश होती रहती। यह शर्त कर देता कि मूल में से उसे कुछ न दिया जाय।

सहसा कमलाप्रसाद आँखें मलते हुए आकर खड़े हो गये और बोले--अभी आप सोये नहीं? गरमी लगती हो, तो पंखा लाकर रख दूँ। रात तो ज्यादा गई।

बदरी॰--नहीं, गरमी नहीं है। प्रेमा से कुछ बातें करने लगा था। तुमसे भी कुछ सलाह लेना चाहता था, सो तुम आप ही आ गये।

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