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प्रतिज्ञा

बदरीप्रसाद ने तिरस्कार-भाव से कहा--तुम्हारी यह बड़ी बुरी आदत है कि तुम सबको स्वार्थी समझने लगते हो। कोई भला आदमी दूसरों का एहसान सिर पर नहीं लेना चाहता। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है। गये घरों की बात जाने दो; लेकिन जिसमें आत्म-सम्मान का कुछ भी अंश है, वह दूसरों से सहायता नहीं लेना चाहता। मुझे तो सन्देह ही नहीं, विश्वास है कि पूर्णा कभी इस बात पर राजी न होगी। वह मेहनत-मजूरी कर सकेगी, तो करेगी; लेकिन जब तक विवश न हो जाय, हमारी सहायता कभी न स्वीकार करेगी।

प्रेमा ने बड़ी उत्सुकता से कहा--मुझे भी यह सन्देह है। राज़ी होगी भी तो बड़ी मुश्किल से।

बदरी॰--तुम उससे इसकी चरचा करना। कल ही।

प्रेमा--नहीं दादा, मुझसे न बनेगा। वह और मैं दोनो ही अब तक बहनों की तरह रही हैं, मुझसे इस ढङ्ग की बात अब न करते बनेगी। मैं तो रोने लगूँगी!

बदरी॰--तो मैं ही सब ठीक कर लूँगा। हाँ, कल शायद मुझे अवकाश न मिले, तब तक तुम्हारी अम्माँजी से भी बातें होंगी। शायद वह उसके यहाँ रहने पर राजी हो जायँ।

कमलाप्रसाद गृह-प्रबन्ध में अपने को लासानी समझते थे। यों तो बुद्धि-विकास में वह अपने को अफलातुँ से रत्ती भर भी कम न समझते थे; पर गृह-प्रबन्ध में उनकी सिद्धि सर्व-मान्य थी। सिनेमा रोज़ देखते थे; पर क्या मजाल थी कि जेब से एक पैसा भी खर्च करें। मैनेजर से दोस्ती कर रखी थी। उलटे उसके यहाँ कभी-कभी

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