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प्रतिज्ञा

दावत खा आते थे। पैसे का काम धेले में निकालते थे और बड़ी सुन्दरता से। कभी-कभी लाला बदरीप्रसाद से इस विषय में उनकी ठन भी जाया करती थी। बूढ़े लालाजी बेटे की इस कुत्सित मनोवृत्ति पर कभी-कभी खरी-खरी कह डालते थे। कमलाप्रसाद समझ गये कि लालाजी इस वक्त कोई आपत्ति न सुनेंगे। बल्कि आपत्ति से उल्टा असर होने की सम्भावना थी। इसलिए उन्होंने कूट-नीति से काम लेने का निश्चय किया। प्रातः काल पूर्ण के द्वार पर जाकर आवाज़ दी। पूर्णा पहले तो उनसे परदा करती थी; पर अब बहुरिया बनकर बैठने से कैसे काम चल सकता था। उन्हें अन्दर बुला लिया। बरामदे में चारपाई पड़ी हुई थी। कमला बाबू उस पर जा बैठे। एक क्षण में पूर्णा आकर उनके सामने खड़ी हो गई। पूर्णा का माथा घूँघट से ढका हुआ था; पर दोनो सजल आखें कृतज्ञता और विनय से भरी

हुई भूमि की ओर ताक रही थीं। कमलाप्रसाद उसे देखकर अवाक्-सा रह गया। वह इस इरादे से आया था कि इसे किसी भाँति यहाँ से टाल दूँ। मैके चले जाने की प्रेरणा करूँ। उसे इसकी ज़रा भी चिन्ता न थी कि इस अबला का भविष्य क्या होगा। उसका निर्वाह कैसे होगा, उसकी रक्षा कौन करेगा, उसका उसे लेश-मात्र भी ध्यान न था। वह केवल इस समय उसे यहाँ से टालकर अपने रूपए बचा लेना चाहता था; पर विधवा की सरल, निष्कलंक, दीन-मूर्ति देखकर उसे अपनी कुटिलता पर लज्जा आ गई। कौन प्राणी ऐसा हृदय-हीन है जो किसी कोमल पुष्प को तोड़कर भाड़ में झोंक दे। जीवन में पहली बार उसे सौंदर्य का आकर्षण हुआ। अँधेरे घर में दीपक जल उठा।

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