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प्रतिज्ञा

बोले--तुम्हें यहाँ अब अकेले रहने में तो बड़ा कष्ट होगा। उधर उमा भी अकेले घबराया करती है। उसी घर में तुम भी क्यों न चली आओ! क्या कोई हरज है?

पूर्णा सिर नीचा किये एक क्षण तक सोचने के बाद बोली--हरज तो कछ नहीं है बाबूजी! यहाँ भी तो आप ही लोगों के भरोसे पड़ी हूँ।

कमला--तो आज चली चलो। बाबूजी की भी यही इच्छा है। मैं जाकर आदमियों को असबाब ले जाने के लिए भेजे देता हूँ।

पूर्णा--नहीं बाबूजी, इतनी जल्दी न कीजिये। ज़रा सोच लेने दीजिये।

कमला--इसमें सोचने की कौन-सी बात है। अकेले कैसे पड़ी रहोगी?

पूर्णा--अकेली तो नहीं हूँ। महरी भी यहीं सोने को कहती है।

कमला--अच्छा, वह बिल्लो! हाँ, बुढ़िया है तो सीधी; लेकिन टर्री है। आखिर मेरे घर चलने में तुम्हें क्या असमञ्जस है?

पूर्णा-कुछ नहीं, असमञ्जस क्या है?

कमला--तो आदमियों को जाकर भेज दूँ।

पूर्णा--भेज दीजियेगा, अभी जल्दी क्या है?

कमला--तुम व्यर्थ ही इतना संकोच करती हो पूर्णा! क्या तुम समझती हो, तुम्हारा जाना मेरे घर के और प्राणियों को बुरा लगेगा?

कमला का अनुमान ठीक था। पूर्णा को वास्तव में यही आपत्ति

थी; पर वह संकोच-वश इसे प्रकट न कर सकती थी। उसने समझा, बाबूजी ने मेरे मन की बात ताड़ ली। इससे वह लज्जित भी हो गई।

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