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प्रतिज्ञा

बाबू साहब के घरवालों के विषय में ऐसी धारणा उसे न करनी चाहिये थी; पर कमलाप्रसाद ने उसके संकोच का शीघ्र ही अन्त कर दिया। बोले--तुम्हारा यह अनुमान बिलकुल स्वाभाविक है पूर्णा! लेकिन सोचो, मेरे घर में ऐसा कौन-सा आदमी है जो तुम्हारा विरोध कर सके। बाबूजी की स्वयं यह इच्छा है। मुझे तुम खूब जानती हो। प० वसन्तकुमार से मेरी कितनी गहरी दोस्ती थी, यह तुमसे छिपी नहीं, प्रेमा तुम्हारी सहेली ही है, अम्माँजी को तुमसे कितना प्रेम है वह तुम जानती ही हो; रह गई सुमित्रा, उसे ज़रा कुछ बुरा लगेगा। तुमसे कोई परदा नहीं; लेकिन, उसकी बातों की परवा कौन करता है? उसे खुश रखने का भी तुम्हें एक गुर बताये देता हूँ। कभी-कभी यह मन्त्र फूँक दिया करना, फिर वह कभी तुम्हारी बुराई न करेगी। बस उसकी सुन्दरता की तारीफ़ करती रहना। यह न समझना कि रम्भा या उर्वशी कहने से वह समझ जायगी कि यह मुझे बना रही हैं। तुम चाहे जितना बढ़ाओ, वह उसे यथार्थ ही समझेगी। इसी मन्त्र से मैं उसे नचाया करता हूँ। वही मन्त्र तुम्हें बताये देता हूँ।

पूर्णा को हँसी आ गई। बोली--आप तो उनकी हँसी उड़ा रहे हैं। भला ऐसा कौन होगा, जिसे इतनी समझ न हो।

कमला--इतनी समझ को तुम साधारण बात समझ रही हो; पर यह साधारण बात नहीं। तुमको यह सुनकर आश्चर्य तो होगा; पर

अपनी तारीफ़ सुनकर हम इतने मतवाले हो जाते हैं कि फिर हम में विवेक की शक्ति ही लुप्त हो जाती है। बड़े-से बड़ा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठता है। हाँ, प्रशंसा करनेवाले के शब्दों में

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