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प्रतिज्ञा

सन्ध्या समय वह अपनी महरी बिल्ली के साथ रोती हुई इस भाँति चली, मानो कोई निर्वासिता हो। पीछे-फिर-फिरकर अपने प्यारे घर को देखती जाती थी, मानो उसका हृदय वहीं रह गया हो।

प्रेमा अपने द्वार पर खड़ी उसकी बाट देख रही थी। पूर्णा को देखते ही दौड़कर उसके गले से लिपट गई। इस घर में पूर्णा प्रायः नित्य ही आया करती थी। तब यहाँ बाते ही उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था, आमोद-प्रमोद में समय कट जाता था; पर आज इस घर में कदम रखते उसे सङ्कोचमय ग्लानि हो रही थी। शायद वह पछता रही थी कि व्यर्थ ही आई। प्रेमा के गले मिलकर भी उसका चित्त प्रसन्न नहीं हुआ। तब वह सखी-भाव से आती थी, आज वह आश्रिता बनकर आई थी। तब उसका आना साधारण बात थी, उसका विशेष आदर-सम्मान न होता था, लोग उसका स्वागत करने को न दौड़ते थे। आज उसके आते ही देवकी भण्डारे का द्वार खुला छोड़कर निकल आई। सुमित्रा अपने बाल गुँथवा रही थी, अब गुँथी चोटी पर अञ्चल डालकर भागी, महरियाँ अपने-अपने काम छोड़कर निकल आई, कमलाप्रसाद तो पहले ही से आँगन में खड़े थे। लाला बदरीप्रसाद सन्ध्या करने जा रहे थे, उसे स्थगित करके आँगन में आ पहुँचे। यह समारोह देखकर पूर्णा का हृदय विदीर्ण हुआ जाता था। यह स्वागतज्ञसम्मान का सूचक नहीं, दया का सूचक था।

देवकी को सुमित्रा की कोई बात न भाती थी। उसका हँसना-बोलना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, पहनना-ओढ़ना सभी उन्हें फूहड़पन की चरम सीमा का अतिक्रमण करता हुआ जान पड़ता था, और वह

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