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प्रतिज्ञा

नित्य उसकी प्रचण्ड आलोचना करती रहती थीं। उनकी आलोचना में प्रेम और सद्भाव का आधिक्य था, या द्वेष का, इसका निर्णय करना कठिन था। सुमित्रा तो द्वेष ही समझती थी। इसीलिए वह उन्हें और भी चिढ़ाती रहती थी। देवकी सवेरे उठने का उपदेश करती थीं, सुमित्रा पहर दिन चढ़े उठती थी; देवकी घूँघट निकालने को कहती थी, सुमित्रा इसके जवाब में आधा सिर खुला रखती थी। देवकी महरियों से अलग रहने की शिक्षा देती थीं, सुमित्रा महरियों से हँसी-दिल्लगी करती रहती थी। देवकी को पूर्णा का यहाँ आना अच्छा नहीं लग रहा है, यह उससे छिपा न रह सका; पहले ही से उसने पति के इस प्रस्ताव पर नाक सिकोड़ी थी। पर, यह जानते हुए कि इनके मन में जो इच्छा है उसे यह पूरा ही करके छोड़ेंगे, उसने विरोध करके अपयश लेना उचित न समझा था। सुमित्रा सास के मन के भाव ताड़ रही थी। यह भी जानती थी कि पूर्णा भी अवश्य ही ताड़ रही है। इसलिए पूर्णा के प्रति उसके मन में स्नेह और सहानुभूति उत्पन्न हो गई। अब तक देवकी पूर्णा को आदर्श-गृहिणी कहकर बखान करती रहती थी। उसको दिखाकर सुमित्रा को लज्जित करना चाहती थी। इसलिए सुमित्रा पूर्णा से जलती थी। आज देवकी के मन में वह भाव न था। इसलिए सुमित्रा के मन में भी वह भाव न रहा।

पूर्णा आज बहुत देर तक प्रेमा के पास न बैठी। चित्त बहुत उदास था। आज उसे अपनी दशा की हीनता का यथार्थ ज्ञान हुआ था। इतनी जल्द उसकी दशा क्या-से-क्या हो गई थी, वह आज

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