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प्रतिज्ञा

सहसा सुमित्रा ने आकर पूछा--अरे! तुम तो यहाँ खिड़की के सामने खड़ी हो। मैंने समझा था, तुम्हें नींद आ गई होगी। पूर्णा ने आँसू पोंछ डाले और आवाज़ सँभालकर बोली--यह तो तुम झूठ कहती हो बहन। यह सोचती तो तुम आतीं क्यों? सुमित्रा ने चारपाई पर बैठते हुए कहा--सोचा तो यही था, सच कहती हूँ; पर न-जाने क्यों चली आई। शायद तुम्हें सोते देखकर लौट जाने के लिए ही आई थी। सच कहती हूँ। अब लेटो न, रात तो बहुत गई।

पूर्णा ने कुछ आशङ्कित होकर पूछा--तुम अब तक कैसे जाग रही हो!

सुमित्रा--सारे दिन सोया जो करती हूँ।

पूर्णा--तो क्यों सोती हो सारे दिन?

सुमित्रा--यही रात को जागने के लिए।

सुमित्रा हँसने लगी। एक क्षण में सहसा उसका मुख गम्भीर हो गया। बोली--अपने माता-पिता की धन-लिप्सा का प्रायश्चित कर रही हूँ बहन, और क्या? यह कहते-कहते उसकी आँखें सजल हो गई।

पूर्णा यह वाक्य सुनकर चकित हो गई। इस जीवन के मधुर सङ्गीत में यह कर्कश स्वर क्यों?

सुमित्रा किसी अन्तर्वेदना से विकल होकर बोली--तुम देख लेना बहन, एक दिन यह महल ढह जायगा। यही अभिशाप मेरे मुँह से बार-बार निकलता है; पूर्णा ने विस्मित होकर कहा--ऐसा क्यों कहती हो

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