पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

बहन? फिर उसे एक बात याद हो गई। पूछा--क्या अभी भेया नहीं आये?

सुमित्रा द्वार की ओर भीत-नेत्रों से देखती हुई बोली--अभी नहीं, बारह ही तो बजे हैं। इतनी जल्द क्यों आयेंगे? न एक, न दो, न तीन। मेरा विवाह तो इस महल से हुआ है। लाला बदरीप्रसाद की बहू हूँ, इससे बड़े सुख की कल्पना कौन कर सकता है? भगवान ने किस लिए मुझे जन्म दिया, समझ में नहीं आता। इस घर में मेरा कोई अपना नहीं है बहन। मैं ज़बरदस्ती पड़ी हुई हूँ, मेरे मरने-जीने की किसी को परवा नहीं है। तुमसे यही प्रार्थना है कि मुझ पर दया रखना। टूटे हुए तारों से मीठे स्वर नहीं निकलते। तुमसे न जाने क्या-क्या कहूँगी! किसी से कह न देना कि और भी विपत्ति में पड़ जाऊँ। हम-दोनो दुखिया हैं। तुम्हारे हृदय में सुखद स्मृतियाँ हैं, मेरे में वह भी नहीं। मैंने सुख देखा ही नहीं और न देखने की आशा ही रखती हूँ।

पूर्णा ने एक लम्बी साँस खींचकर कहा--मेरे भाग्य से अपने भाग्य की तुलना न करो बहन। पराश्रय से बड़ी विपत्ति दुर्भाग्य के कोष में नहीं है।

सुमित्रा सूखी हँसी हँसकर बोली--वह विपत्ति क्या मेरे सिर नहीं है बहन? अगर मुझे कहीं आश्रय होता, तो इस घर में एक क्षण-भर भी न रहती। सैकड़ों बार माता-पिता को लिख चुकी हूँ कि मुझे बुला लो, मैं आजीवन तुम्हारे चरणों में पड़ी रहूँगी; पर उन्होंने भी मेरी ओर से अपना हृदय कठोर कर लिया। जवाब में उपदेशों का एक पोथा रँगा।

५१