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प्रतिज्ञा

विलम्ब हो चुका था, बिरादरी में लोग उँगलियां उठाने लगे थे। नये सम्बन्ध की खोज में विवाह के एक अनिश्चित समय तक टल जाने का भय था। इसलिए मन को इधर-उधर न दौड़ाकर उन्होंने दाननाथ ही से बात पक्की करने का निश्चय कर लिया। देवकी ने भी कोई आपत्ति न की। प्रेमा ने इस विषय में उदासीनता प्रकट की। अब उसके लिए सभी पुरुष समान थे, वह किसी के साथ जीवन का निर्वाह कर सकती थी। उसकी चलती तो वह अविवाहिता ही रहना पसन्द करती; पर जवान लड़की बैठी रहे, यह कुल के लिए घोर अपमान की बात थी। इस विषय में किसी प्रकार का दुराग्रह करके वह माता-पिता का दिल न दुखाना चाहती थी। जिस दिन अमृतराय ने वह भीषण प्रतिज्ञा की उसी दिन प्रेमा ने समझ लिया कि अब जीवन में मेरे लिए सुख का लोप हो गया; पर अविवाहिता रहकर अपनी हँसी कराने की अपेक्षा किसी की होकर रहना कहीं सुलभ था। आज से दो-तीन साल पहले दाननाथ ही से उसके विवाह की बात-चीत हो रही थी, यह वह जानती ही थी। बीच में परिस्थिति न बदल गई होती, तो आज यह दाननाथ के घर होती। दाननाथ को वह कई बार देख चुकी थी। वह रसिक हैं, सज्जन हैं, विद्वान् हैं, यह उसे मालूम था। उनकी सच्चरित्रता पर भी किसी को सन्देह न था, देखने में भी बहुत ही सजीले-गठीले आदमी थे। ब्रह्मचर्य की कान्ति मुख पर झलकती थी। उससे उन्हें प्रेम था, यह भी उससे छिपा न था। आँखें हृदय के भेद खोल ही देती हैं। अमृतराय ने हँसी-हँसी में प्रेमा से इसकी चर्चा भी कर दी थी। यह सब होते हुए भी प्रेमा को इनका जो कुछ ख्याल था वह इतना


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