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प्रतिज्ञा

पर जा पहुँचे। सूर्यदेव पुष्पों और पल्लवों पर अपने अन्तिम प्रसाद की स्वर्ण-वर्षा करते हुए चले जा रहे थे। टमटम तैयार खड़ी थी; पर अमृतराय का पता न था। नौकर से पूछा तो मालूम हुआ कमरे में हैं। कमरे के द्वार का परदा उठाते हुए बोले—भले आदमी, तुम्हें गरमी भी नहीं लगती, यहाँ साँस लेना मुश्किल है और आप बैठे तपस्या कर रहे हैं।

प्रकाश की एक सूक्ष्म रेखा चिक में प्रवेश करती हुई अमृतराय के मुख पर पड़ी। अमृतराय चौंक पड़े। वह मुख पीतवर्ण हो रहा था। आठ-दस दिन पहले जो कान्ति थी, उसका कहीं नाम तक न था। घबड़ाकर कहा—यह तुम्हारी क्या दशा है? कहीं लू तो नहीं लग गई? कैसी तबीयत है?

अमृतराय ने दाननाथ को गले लगाते हुए कहा—ऐसा भी कभी हुआ है कि तुमने मुझे देखकर कहा हो, आजकल तुम खूब हरे हो? तुम्हें तो मैं हमेशा ही बीमार नज़र आता हूँ, हर बार पहले से अधिक। जीता कैसे हूँ, यह भगवान ही जानें?

दाननाथ हँस पड़े; पर अमृतराय को हँसी न आई। गम्भीर स्वर में बोले—सारी दुनिया के सिद्धान्त चाटे बैठे हो, अभी स्वास्थ्य-रक्षा पर बोलना पड़े तो इस विषय के पण्डितों को भी लज्जित कर दोगे; पर इतना नहीं हो सकता कि शाम को सैर ही कर लिया करो।

दाननाथ ने मुसकराते हुए कहा—मेरे पास टमटम होती तो सारे दिन दौड़ाता, घोड़ा भी याद करता कि किसी के पाले पड़ा था। पैदल मुझे सैर में मज़ा नहीं आता। अब निकालो, कुछ सिगार-विगार निकालोगे,

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