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प्रतिज्ञा

या बूढ़ों की तरह कोसते ही जाओगे। तुम्हें संसार में बड़े-बड़े काम करने हैं, तुम देह की रक्षा करो। तुम्हीं ने तो संसार के उद्धार करने का ठेका लिया है। यहाँ क्या, एक दिन चुपके से चल देना है। चाहता तो मैं भी यही हूँ कि संयम-नियम के साथ रहूँ; लेकिन जब निभ जाए तब तो? कितनी बार डँड, मुग्दर, डम्बेल शुरू किया; पर कभी निभा सका? आखिर समझ गया कि स्वास्थ्य मेरे लिए है ही नहीं। फिर उसके लिए क्यों व्यर्थ में जान दूँ। इतना जानता हूँ कि रोगियों की आयु लम्बी होती है। तुम साल में एक बार मलेरिया के दिनों में मर कर जीते हो। तुम्हें ज्वर आता है तो सीधा १०६ अंश तक जा पहुँचता है। मुझे एक तो ज्वर आता ही नहीं और आया भी तो १०१ अंश से आगे बढ़ने का साहस नहीं करता। देख लेना, तुम मुझसे पहले चलोगे। हालांकि मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि तुम्हारी गोद में मेरा प्राण निकले! अगर तुम्हारे सामने मरूँ तो मेरी यादगार ज़रूर बनवाना। तुम्हारी यादगार बनानेवाले तो बहुत निकल आवेंगे, लेकिन मेरी दौड़ तो तुम्हीं तक है। मेरा महत्व और कौन जानता है?

इन उच्छृङ्खल शब्दों में विनोद के साथ कितनी आत्मीयता, कितना प्रगाढ़ स्नेह भरा हुआ था कि दोनों ही मित्रों की आखें सजल हो गई। दाननाथ तो मुसकुरा पड़े; लेकिन अमृतराय का मुँह गम्भीर हो गया। दाननाथ हँसमुख थे; पर विनोद की शैली किसी मर्मान्तक वेदना का पता दे रही थी। अमृतराय ने पूछा—लाला बदरीप्रसाद के यहाँ से कोई सन्देशा आया? तुम तो इधर कई दिन से दिखाई ही

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