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प्रतिज्ञा

ख़याल उनके दिल में कुछ इस तरह छिपकर बैठा हुआ था कि उस पर कोई वार हो ही नहीं सकता था।

सहसा अमृतराय ने घंटी बजाई। एक बूढ़ा आदमी सामने आकर खड़ा हो गया। अमृतराय ने लाला बदरीप्रसाद के नाम एक पत्र लिखा और दाननाथ से बोले--इस पर दस्तख़त कर दो।

दाननाथ खिड़की के सामने खड़े सिगार पी रहे थे। पूछा--कैसा ख़त?

'पढ़ लो न सामने तो है।'

'तुम मेरी गरदन पर छुरी चला रहे हो।'

'बस, चुपके से हस्ताक्षर कर दो। मुझे एक मीटिंग में जाना है, देर हो रही है।'

'तो गोलो ही क्यों न मार दो कि हमेशा का झंझट मिट जाय।'

'बस अब चीं-चपड़ न करो, नहीं तो याद रखो फिर तुम्हारी सूरत न देखूँगा।'

यह धमकी अपना काम कर गई। दाननाथ ने पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया और तब बिगड़कर बोला--देख लेना आज सड़्खिया खा लेता हूँ कि नहीं। यह पत्र रखा ही रह जायगा। सवेरे 'राम नाम सत्त' होगी।

अमृतराय ने पत्र को लिफ़ाफ़े में बन्द करके वृद्ध को दिया। बदरीप्रसाद का नाम सुनते ही बूढ़ा मुसकराया और खत लेकर

चला गया।

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