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प्रतिज्ञा

अब तक लाला बदरीप्रसाद को कुछ-कुछ आशा थी कि शायद अमृतराय की आवेश में की हुई प्रतिज्ञा कुछ शिथिल पड़ जाय। लिखावट देखकर पहले वह यही समझे थे कि अमृतराय ने क्षमा माँगी होगी; लेकिन पत्र पढ़ा तो आशा की वह पतली-सी डोरी भी टूट गई। दाननाथ का पत्र पाकर शायद वह अमृतराय को बुलाकर दिखाते और प्रति-स्पर्द्धा को जगाकर उन्हें पञ्जे में लाते। यह आशा की धज्जी भी उड़ गई। इस जले पर नमक छिड़क दिया अमृतराय की लिखावट ने। क्रोध से काँपते हुए हाथों से दाननाथ को यह पत्र लिखा:--

लाला दाननाथ जी, आपने अमृतराय से यह पत्र लिखाकर मेरा और प्रेमा का जितना आदर किया है, उसका आप अनुमान नहीं कर सकते। उचित तो यही था कि मैं उसे फाड़कर फेंक देता और आपको कोई जवाब न देता, लेकिन...!

यहीं तक लिख पाये थे कि देवकी ने आकर बड़ी उत्सुकता से पूछा--क्या लिखा है बाबू अमृतराय ने?

बदरीप्रसाद ने कागज़ की ओर सिर झुकाये हुये कहा--अमृतराय का कोई ख़त नहीं आया।

देवकी--चलो, कोई ख़त कैसे नहीं आया! मैंने कोठे पर से देखा उनका आदमी एक चिट्ठी लिये लपका आ रहा था।

बदरी॰--हाँ, आदमी तो उन्हीं का था; पर ख़त दाननाथ का था! उसी का जवाब लिख रहा हूँ। महाशय ने अमृतराय से ख़त लिखाया है और नीचे अपने दस्तख़त कर दिये हैं। अपने हाथ से

लिखते शर्म आती थी। बेहूदा, शोहदा...

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