पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

का ऐसा अच्छा अवसर पाकर वह अपने को सम्वरण न कर सके, बोले--यह देखो प्रेमा, दानू ने अभी-अभी यह पत्र भेजा है। मैं तुमसे इसकी चर्चा करने जा ही रहा था कि तुम खुद आ गई।

पत्र का आशय क्या है, प्रेमा इसे तुरत ताड़ गई। उसका हृदय ज़ोर से धड़कने लगा। उसने काँपते हुए हाथों से पत्र ले लिया; पर यह कैसा रहस्य! लिखावट तो साफ़ अमृतराय की है। उसकी आँखें भर आई। लिफ़ाफे पर यह लिपि देखकर एक दिन उसका हृदय कितना फूल उठता था! पर आज! वही लिपि उसकी आँखों में काँटों की भाँति चुभने लगी। एक-एक अक्षर बिच्छू की भाँति हृदय में डंक मारने लगा। उसने पत्र निकालकर देखा---वही लिपि थी, वही चिर-परिचित, सुन्दर स्पष्ट-लिपि, जो मानसिक शान्ति की द्योतक होती है। पत्र का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके लिए पहले ही से तैयार थी। उसको निश्चय था कि दाननाथ इस अवसर पर न चूकेंगे। उसने इस पत्र का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ़ इनकार। पर, यह पत्र अमृतराय की क़लम से निकलेगा, इसकी सम्भावना ही उसकी कल्पना से

बाहर थी। अमृतराय इतने हृदय-शून्य हैं, इसका उसे गुमान भी न हो सकता था। वही हृदय जो अमृतराय के साथ विपत्ति के कठोरतम आघात और बाधाओं की दुस्सह यातनाएँ सहन करने को तैयार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अतुल प्रेम, वह असीम भक्ति जो प्रेमा ने उसमें बरसों से संचित कर रक्खी थी, एक दीर्घ शीतल निःश्वास के रूप से निकल गई। उसे ऐसा जान पड़ा, मानों

७५