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प्रतिज्ञा

उसके सम्पूर्ण अंग शिथिल हो गये हैं, मानो हृदय भी निस्पन्द हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमात्र भी अधिकार नहीं है। उसके मुख से ये शब्द निकल पड़े--आपकी जो इच्छा हो वह कीजिये, मुझे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी--जब कुएँ में ही गिरना है, तो जैसे पक्का वैसे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे किसी ने उसे सचेत कर दिया। वह तुरत पत्र वहीं फेंककर अपने कमरे में लौट आई और खिड़की के सामने खड़ी होकर फूट-फूटकर रोने लगी।

सन्ध्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके तारे निकलते आते थे। प्रेमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मृतियाँ जागरित होने लगीं। देखते-देखते सारा गगन-मण्डल तारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मृितियों से आच्छन्न हो गया; पर इन असंख्य तारों से आकाश का अन्धकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?



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