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प्रतिज्ञा

थी कि उसे काबू में लाने के लिए किसी बड़ी साधना की ज़रूरत न थी। और फिर यहाँ तो किसी का भय नहीं; न फँसने का भय, न पिट जाने की शङ्का। अपने घर लाकर उसने शङ्काओं को निरस्त्र कर दिया था। उसने समझा था, भव मार्ग में कोई बाधा नहीं रही। केवल घरवालों की आँख बचा लेना काफ़ी था और यह कुछ कठिन न था; किन्तु यहाँ भी एक बाधा खड़ी हो गई और वह सुमित्रा थी। सुमित्रा पूर्णा को एक क्षण के लिए भी न छोड़ती थी, दोनो भोजन करने साथ-साथ जाती, छत पर देखो तो साथ, कमरे में देखो तो साथ, रात को साथ, दिन को साथ। कभी दोनो साथ ही साथ सो जातीं। कमला जब शयनागार में जाकर सुमित्रा की राह देखता-देखता सो जाता, तो न-जाने कब वह उसके पास आ जाती। पूर्णा से एकान्त में कोई बात करने को उसे अवसर न मिलता था। वह मन में सुमित्रा पर झुँझलाकर रह जाता। आख़िर एक दिन उससे न रहा गया। रात को जब सुमित्रा आई, तो उसने कहा---तुम रात-दिन पूर्णा के पास क्यों बैठी रहती हो? वह अपने मन से समझती होगी कि यह तो अच्छी बला गले पड़ी। ऐसी तो कोई बड़ी समझदार भी नहीं हो कि तुम्हारी बातों में उसे आनन्द आता हो। तुम्हारी बेवकूफी पर हँसती होगी।

सुमित्रा ने कहा--अकेली पड़ी-पड़ी क्या करूँ? फिर यह भी तो अच्छा नहीं लगता कि मैं आराम से सोऊँ और वह अकेली रोया करे। उठना भी चाहती हूँ, तो चिमट जाती है छोड़ती ही नहीं। मन में मेरी बेवकूफ़ी पर हँसती है या नहीं, यह कौन जाने; पर मेरा साथ उसे अच्छा न लगता हो, यह बात नहीं।

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